मंगलवार, 10 अक्टूबर 2017

ईश्वर के चरणों में -(शालिनी छंद)

        ईश्वर के चरणों में

         शालिनी छंद

(मगण तगण तगण गुरू गुरू)

हारा वो है देख,टूटा कहीं से।
ले जाता है कौन,ज्यादा यहीं से।
क्या क्या संभाले यार हीरा न मोती।
पीछे छूटे नाम काया व धोती।

वो है ज्ञाता विश्व का सार देखो।
माया पूरा है यहाँ नार देखो।
कैसे होगें मुक्त सोचो कभी तो।
छूटे माया डोर थोड़ा तभी तो।

ठण्ड़ा होना है सभी को यही तो।
काहे पाले द्वेष जाना वहीं तो।
ईर्ष्या हो या लोभ से पार जाऊँ।
खो जाऊँ ऐसे सुधी वार जाऊँ।

              - पुखराज यादव

मृत्यु को निमंत्रण -(स्वागता छंद)

          मृत्यु को निमंत्रण

         स्वागता
(रगण नगण भगण+ 22)

शोक-शोक लहरें बढ़ जाएँ।
काल मृत्यु तब तंड़व भाएँ।
घोर-घोर सब वंदन गाए।
मृत्युदेव भय दर्शण लाए।

हो रही गरम भू समझोगे।
देख ऊर्मि तुम ही उलझोगे।
दे रहे निमंत्रण क्यो जी।
काल से फलित कौन भला जी।

भूमि वायु जल अम्बर आगी।
मूल तत्व सब है कल रागी।
लूटते चल रहे हम बागी।
भू विनास करके बन भागी।

है उसे नमन जो नव सोचें।
लो सभी मिल चलो तम रोके।
सार जीवन करे हम साथी।
स्वच्छ हो जगत के कण साथी।

                     - पुखराज "अकाय"

अभिमन्यु-गाथा- (इंद्रवज्रा छंद)

            अभिमन्यु-गाथा

छंद- इंद्रवज्रा
मात्रा- त.... त.... ज...+ 22

है शौर्य का सार सरोज गाथा।
है वीर पर्याय अभिमन्यु गाथा।
सूना तभी वो व्युह शुन्य होके।
जैसे उसे हार कभी न रोके।

संसार का है वह वीर आला।
था ज्ञान एवं तलवार भाला।
था तुंग जैसे वह वीर सोला।
गंभीर रत्नाकर धीर भोला।

वो युद्ध को पांव बढ़ा रहा था।
ले तीर भाला विकराल वो था।
हो चक्रव्युहों सब तोड़ बाधा।
सुर्या बने वो रण में विधाता।

संघार दुर्योधन देख भागा।
जैसे वही काल समान आगा।
वो द्वंद संघार असीम लागा।
जो नर्तका काल समीर जागा।

हो चाल भूचाल अकाल साथा।
आकाश देखा नर काल गाथा।
हारे सभी युध्द समीर सारे।
ले आड़ वो ढ़ोग अजेय मारे।

वो गाज आगाज प्रहार भारी।
वो था महावीर कुमार भारी।

          -पुखराज यादव"अकाय"

कवि-धर्म-( दोधक छंद)

                   कवि-धर्म

छंद- दोधक छंद
मात्राएँ- (भ..+भ..+भ..+22= 16)
वर्ण- 11

क्या लिखते रहते तुम भाया।
हालत ठीक न है यह काया।
घोर विचार करो नहिं माया।
हो सब अर्थ रहे नहिं जाया।

साधक होकर अमीट होना।
सीख वही रख असीम द्रोणा।
मान कभी कम ना कवि होएँ।
जो पढ़ले वह जातक होएँ।

साम न दाम न दंड़ न कोई।
भेद नहीं रचलो पय कोई।
शब्द महान गढ़ो अब ज्ञानी।
वीर कवित्त बने पय मानी।

आखर आखर में स्वर होगा।
लोक सभी फिर साक्षर होगा।
दीपक होकर देख कभी तूँ।
आँख लड़ा तम से कभी तूँ।

धर्म यही अपना मित साथी।
पार सभी कर लक्ष्य तु हाथी।
देकर मुल्य यहीं सब जाएँ।
जीवन को सब सार बनाएँ।

          -  पुखराज यादव

शुक्रवार, 6 अक्टूबर 2017

बदलते ग्रामीण परिवेश-(भुजंगी छंद)

-       बदलते ग्रामीण परिवेश    -
              भुजंगी छंद

(यगण यगण यगण + लघु गुरू)

कहीं धूप है तो कहीं छाँव है।
कहीं शीत है तो कहीं रांव है।
कहीं आग,अग्नेय की ताव है।
कही स्वाह होता दिखे गांव है।

चलो तो सही पाँव लांघे अभी।
चलो आज हो पार मांगे सभी।
चलो उच्च हो ख्याल आधार के।
चलो ज्ञान हो योग संसार के।

सदा हो हमें ज्ञात रास्ता सहीं।
सदा हो मिले सत्य वास्ता सही।
सदा धीर हो चित्त तेरा मनू।
सदा पीर हो क्षीण तेरा मनू।

बसाएँ चलो गाँव आदर्श वो।
बसाएँ जहाँ काम उत्कर्ष वो।
बसाएँ वहाँ नाम गाँधी का।
बसाएँ वहाँ ग्राम गाँधी का।

            - अकाय श्री

गुरुवार, 5 अक्टूबर 2017

-युवा शक्ति- (नागराज-छंद)

            -युवा शक्ति-
छंद- नागराज
मात्रा-
(जगण रगण जगण रगण जगण+2)

हुई अभी न देर रे,न घोर ये घड़ी हुई।
न है मची हिलोर रे,न रेत की घड़ी गई।

चलो उठो युवा अभी,न बेर आज की ढ़ली।
दिवा जला रखो सभी,न है अभी निशा ढ़ली।

धरा तुझे पुकारती,युवा बढ़ो चलो अभी।
भविष्य है तु भारती,सुधा बने धरा तभी।

वियोग हो परोक्ष से,न देर है हुई अभी।
जगे-जगे युवा भरे,असीम है युवा सभी।

              - अकाय-श्री

अमर विजय- (नगस्वरूपिणी छंद)

               "अमर-विजय"

नगस्वरूपिणी छंद
(121 212 12)

विहंग ऊच्च हो चले,
उड़े तभी मिले फले।
धरा यहाँ विशाल है।
हुआ यहाँ भुचाल है।

बढ़ो बढ़ो सहीं अभी,
सखा यहाँ बयार है।
तरू नते वही सही,
बढ़े वही अपार है।

पहाड़ जीतने चलो,
बढ़ा-बढ़ा तु पाँव रे,
अजीत हो चले सभी,
रखों अदम्य छांव रे।

प्रभा रहे असीम ये,
चलो गढ़े वही प्रभा।
धरा मही सभी यही,
बने चलो तभी सभा।

             -अकाय-श्री

कविता- डमरू-घनाक्षरी छंद

डमरू-घनाक्षरी छंद
(2222,2222,2222,2222)

चल चल पग रख,डगर पर न डग।
बल बल रख सम,तम पर रख पग।

बढ़ बढ़ झट झट, खटखट मत कर।
हस हस चल अब,ठग स्वर मत भर।

मन रख मत मत,डगर अपन चल।
शत शत सम शत,भय रख मत छल।

दम सब सम सत,चल उठ उठ अब।
पल पल घट क्षण,रण रण सम सब।

              -अकाय श्री